Poem of Om Prakash Balmiki : इस आर्टिकल में हम आपके लिये दलित साहित्य के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकारों में से एक श्री ओम प्रकाश बाल्मिकि की रचनाओं का संग्रह लेकर आये हैं। दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश वाल्मीकि की महत्वपूर्ण भूमिका है, उन्होनें अपने लेखन में जातीय अपमान और उत्पीड़न का जीवंत वर्णन करते हुये देश में दलितों के साथ पल-पल होने वाले अत्याचारों पर चोट करते है। वह मानते थे कि दलित की पीड़ा को दलित ही बेहतर ढंग से समझ सकता है।
Poem of Om Prakash Balmiki
Om Prakash Balmiki- खेत उदास हैं

चिड़िया उदास है
जंगल के खालीपन पर
बच्चे उदास हैं
भव्य अट्टालिकाओं के
खिड़की-दरवाज़ों में कील की तरह
ठुकी चिड़िया की उदासी पर
खेत उदास हैं
भरपूर फ़सल के बाद भी
सिर पर तसला रखे हरिया
चढ़-उतर रहा है एक-एक सीढ़ी
ऊँची उठती दीवार पर
लड़की उदास है
कब तक छिपाकर रखेगी जन्मतिथि
किराये के हाथ
लिख रहे हैं दीवारों पर
‘उदास होना
भारतीयता के खिलाफ़ है !’
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Poem of Om Prakash Balmiki –सदियों का संताप

दोस्तो !
बिता दिए हमने हज़ारों वर्ष
इस इंतज़ार में
कि भयानक त्रासदी का युग
अधबनी इमारत के मलबे में
दबा दिया जाएगा किसी दिन
ज़हरीले पंजों समेत.
फिर हम सब
एक जगह खडे होकर
हथेलियों पर उतार सकेंगे
एक-एक सूर्य
जो हमारी रक्त-शिराओं में
हज़ारों परमाणु-क्षमताओं की ऊर्जा
समाहित करके
धरती को अभिशाप से मुक्त कराएगा !
इसीलिए, हमने अपनी समूची घृणा को
पारदर्शी पत्तों में लपेटकर
ठूँठे वृक्ष की नंगी टहनियों पर
टाँग दिया है
ताकि आने वाले समय में
ताज़े लहू से महकती सड़कों पर
नंगे पाँव दौड़ते
सख़्त चेहरों वाले साँवले बच्चे
देख सकें
कर सकें प्यार
दुश्मनों के बच्चों में
अतीत की गहनतम पीड़ा को भूलकर
हमने अपनी उँगलियों के किनारों पर
दुःस्वप्न की आँच को
असंख्य बार सहा है
ताजा चुभी फाँस की तरह
और अपने ही घरों में
संकीर्ण पतली गलियों में
कुनमुनाती गंदगी से
टखनों तक सने पाँव में
सुना है
दहाड़ती आवाज़ों को
किसी चीख़ की मानिंद
जो हमारे हृदय से
मस्तिष्क तक का सफ़र तय करने में
थक कर सो गई है ।.
दोस्तो !
इस चीख़ को जगाकर पूछो
कि अभी और कितने दिन
इसी तरह गुमसुम रहकर
सदियों का संताप सहना है !
Om Prakash Balmiki- ठाकुर का कुआँ (Thakur ka Kuan)

चूल्हा मिट्टी का, मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का ।
भूख रोटी की, रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का, खेत ठाकुर का ।
बैल ठाकुर का, हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फ़सल ठाकुर की ।
कुआँ ठाकुर का, पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के, गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या ?
गाँव ? शहर ? देश ?
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Poem of Om Prakash Balmiki –कोई खतरा नहीं

शहर की सड़कों पर
दौड़ती-भागती गाड़ियों के शोर में
सुनाई नहीं पड़ती सिसकियाँ
बोझ से दबे आदमी की
जो हर बार फँस जाता है
मुखौटों के भ्रमजाल में
जानते हुए भी कि उसकी पदचाप
रह जाएगी अनचीन्ही
नहीं आएगा उसके हिस्से
समन्दर की रेत में पड़ा सीपी का मोती
लहरें नहीं धोएँगी पाँव
हवाएँ भी निकल जाएँगी
अजनबी बनकर
फिर भी वह देखता है
टकटकी लगाए
भीड़ के सैलाब को
मुश्किल होता है
चेहरों को पहचान लेना
घोषणा होती हैं
अन्तर्राष्ट्रीय मंच से —
‘नस्ल और जाति का प्रश्न हल करना है
मानव विकास के लिए’
चुप्पी साध लेती है दिल्ली
ख़ामोश हो जाते हैं गलियारे
संसद के गलियारे
राष्ट्रपति भवन की दीवारें
और धार्मिक पण्डे
आवाज़ें फुसफुसाती हैं —
‘नस्ल और जाति जैसी
कोई अवधारणा नहीं है
हमारी महान संस्कृति में’
चारों ओर ख़ामोशियों का घना अरण्य
उग आता है
खड़ी हो जाती है
रास्ता रोककर कँटीली बाड़
महान सभ्यता की चिन्ता में
शामिल हो जाते हैं
पेड़-पौधे, पशु-पक्षी
पर्यावरण पर बोलना और सोचना
कितना आसान होता है
नहीं रहता कोई ख़तरा
न धर्म-विरोधी होने का डर
न साप्रदायिकता का भय
नहीं आएगा डराने-धमकाने
कोई दल
आदि देवता का अस्त्र हाथ में लेकर
संस्कृति भी बची रह जाएगी
वैसे भी संस्कृति अक्सर चुप ही रहती है
उस वक़्त जब चीख़ते हैं
बेलछी, कफल्टा, पारस बिगहा,
नारायणपुर, साँढूपुर,
मिनाक्षीपुरम, झज्जर-दुलीना
और गोधरा-गुजरात…
संस्कृति और धर्म जश्न मनाते हैं
जब सिसकता है आदमी
आग में झुलसकर
सड़क पर बिखरी लाशें
सड़ने लगती हैं
जिनकी शिनाख़्त करने
कोई नहीं आता
जो भी आएगा
फोड़ दी जाएँगी उसकी आँखें
या फिर कर दिया जायएगा घोषित
राष्ट्र-विरोधी
घोषणा होती है
खिड़की दरवाज़े बन्द कर लो
महाराजा विक्रमादित्य की सवारी
आने वाली है
सड़कों पर सुनाई पड़ती है
क़दमताल करते बूटों की ध्वनि
हवा में तैरती है बारूदी गन्ध
चुनाव होते हैं हर बार
सभ्य नागरिक निकल पड़ते हैं
संसद और विधानसभाओं की ओर
बिना असलाह के
भूख और मौत से भयभीत आदमी
नहीं जानता
यह सब क्यों होता है
इतनी जल्दी-जल्दी
क्यों गिने जाते हैं
जातियों के सिर
चुनाव के दिनों में
बड़े से बड़ा नेता खड़ा होता है
जाति की जनगणना के बाद ही
यह अलग बात है
सब मौन रहते हैं
‘डरबन’ की घोषणा पर
पड़ोसी देश का राजा
परिक्रमा करता है मन्दिर की
चढ़ाता है बलि भैंसे की
और,
पशु-पक्षियों के हितैषी
निकल जाते हैं टूर पर
देश से बाहर
या फिर किसी तहख़ाने में बैठकर
देख-सुन रहे होते हैं प्रवचन
लखटकिया सन्तों का
सवाल रहते हैं स़िर्फ सवाल
जिनके उत्तर ढूँढ़ना ज़रूरी नहीं है
सभ्य नागरिकों के लिए
‘कहीं’ कोई खतरा नहीं है
मामला धर्म का है
चुप रहने में ही भला है’
सलाह देकर निकल जाता है
राष्ट्रीय अख़बार का सम्पादक
चमचमाती गाड़ी में
मैं देख रहा हूं वह सब जिसे देखना जुर्म है
फिर भी करता हूँ गुस्ताखी
चाहो तो मुझे भी मार डालो
वैसे ही जैसे मार डाला एक प्यासे को
जिसने कोशिश की थी
एक अँजुली जल पीने की
उस तालाब का पानी
जिसे पी सकते हैं कुत्ते-बिल्ली
गाय-भैंसेंं
नहीं पी सकता एक दलित
दलित होना अपराध है उनके लिए
जिन्हें गर्व है संस्कृति पर
वह उतना ही बड़ा सच है
जितना उसे नकराते हैं
एक साज़िश है
जो तब्दील हो रही है
स्याह रंग में
जिसे अन्धेरा कहकर
आँख मून्द लेना काफ़ी नहीं है !