Best of Dushyant Kumar Ki Shayari ! दुष्यंत कुमार के मशहूर शेर

Dushyant Kumar Ki Shayari-: इस आर्टिकल मे हम आपके लिए मशहूर शायर एवं कवि दुष्यंत कुमार के शेर का संग्रह लेकर आए है। 42 साल की छोटी सी उम्र में दुष्यंत ने क्रांतिकारी और व्यवस्था-विरोधी कविताओ, ग़ज़लों और शेरो ने  उन्हें आम आदमी का शायर बना दिया।

दुष्यन्त कुमार का जन्म 01 सितम्बर 1933 को हुआ था. बहोत ही अप्रत्याशित तरीके से उनका निधन, असमय ही भोपाल में 30 दिसम्बर 1975 को हुआ था। दुष्यंत कुमार ने इलाहबाद विश्व विद्यालय से शिक्षा प्राप्त की थी. इसके बाद वो कुछ दिनों तक आकाशवाणी भोपाल में असिस्टेंट प्रोड्यूसर रहे। कवि दुष्यंत कुमार की शायरी दिल को छु जाती है और ह्रदय की गहराइयों मैं उतर जाती है।


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दुष्यंत कुमार की सामाजिक क्रांति की शायरी

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

Dushyant Kumar Ki Shayari

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मौत ने तो धर दबोचा एक चीते की तरह
ज़िंदगी ने जब छुआ फासला रखकर छुआ…

इस शहर मे बारात हो या वारदात
अब किसी भी बात पर खुलती नही हैं खिड़कियाँ…

कल मिला वो महफ़िल मे मुझे चिथरे पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान हूँ

Dushyant Kumar Shayari in Hindi

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है

एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है

दुष्यंत कुमार की बेहतरीन शायरी

चांदनी छत पे चल रही होगी, अब अकेली टहल रही होगी
फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा, वो बर्फ सी पिघल रही होगी

कल का सपना बहुत सुहाना था, ये उदासी न कल रही होगी
सोचता हूँ कि बंद कमरे में, एक शमा सी जल रही होगी

तेरे गहनों सी खनखनाती थी, बाजरे की फसल रही होगी
जिन हवाओं ने तुझको दुलराया, उनमें मेरी ग़ज़ल रही होगी

दुष्यंत कुमार की गजलें

अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए, तेरी सहर हो मेरा आफ़ताब हो जाए
हुज़ूर! आरिज़ो-ओ-रुख़सार क्या तमाम बदन, मेरी सुनो तो मुजस्सिम गुलाब हो जाए

उठा के फेंक दो खिड़की से साग़र-ओ-मीना, ये तिशनगी जो तुम्हें दस्तयाब हो जाए,
वो बात कितनी भली है जो आप करते हैं सुनो तो सीने की धड़कन रबाब हो जाए

बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा, ये आरज़ू भी अगर कामयाब हो जाए
ग़लत कहूँ तो मेरी आक़बत बिगड़ती है, जो सच कहूँ तो ख़ुदी बेनक़ाब हो जाए.

 

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