Kabir Das Ke Dohe In Hindi :- संत कबीर दास के दोहे गागर में सागर के समान हैं। उनका गूढ़ अर्थ समझ कर यदि कोई उन्हें अपने जीवन में उतारता है तो उसे निश्चय ही मन की शांति के साथ-साथ ईश्वर की प्राप्ति होगी।
कबीरदास 15वी सदी के सबसे क्रांतिकारी व्यक्ति थे। इन्होंने अपनी कविताएं तथा दोहे के माध्यम से समाज में काफी बदलाव करने चाहे। कबीर के दोहे विश्व भर में आज तक प्रचलित है। हम इस कबीर के दोहे हिंदी में अर्थ सहित विवरण हे। आप इस पोस्ट की माध्यम से संत कबीर दास के दोहा और उसकी सम्पूर्ण अर्थ को हिंदी भाषा में जान सकते हे।
Kabir Ke Dohe In Hindi
पाथर पूजे हरि मिले , तो मैं पूजू पहाड़ घर की चाकी कोई ना पूजे, जाको पीस खाए संसारअर्थ: कबीर यहाँ पाखंडवाद पर कड़ा प्रहार करते हैं, वो कहते हैं कि अगर पत्थर पूजने से भगवान मिल जाता तो मैं तो पूरा पहाड़ ही पूजने लगूँ लेकिन ऐसा नहीं है और ऐसे पत्थर जिसकी पूजा होती है, उससे तो वो पत्थर ज़्यादा उपयोगी है जिससे चक्की के पाट बने हैं और पूरी दुनिया उससे गेहूं को पीस का आटा बनाती है और फिर अपना पेट भरती है। तो कबीर हम सबको यही समझाते हैं कि फ़िज़ूल की बातों में कुछ नहीं रखा और हमें अपने दिमाग़ का इस्तेमाल करना चाहिए। कबीर अंधविश्वास से भी दूर रहने की सलाह देते हैं।
दोहे और उनके अर्थ
चलन चलन सबको कहत है, नाँ जानौं बैकुंठ कहाँ है? जोजन एक प्रमिति नहिं जानै, बातन ही बैकुंठ बखानै।। कहै सुनें कैसे पतिअइये, जब लग तहाँ आप नहिं जइये।।अर्थ: कबीर ने ब्राह्मण से पहला संवाद इसी आवागमन को लेकर किया। ब्राह्मण जनता को वैकुण्ठ के नाम से भ्रमित करता था। कबीर ने उनसे पूछाµ क्या तुम खुद भी जानते हो, बैकुण्ठ कहाँ है? वह कितने योजन दूर है, यह तक तो तुम्हें मालूम नहीं। सिर्फ बातों में ही बैकुण्ठ बखानते हो। कहने-सुनने से कैसे विश्वास हो, पहले वहाँ स्वयं जाकर तो दिखाइए?
संत कबीर के दोहे और उनके अर्थ
कबीरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।।अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि हम इस संसार में सबका भला सोचें। किसी से यदि हमारी दोस्ती न हो तो किसी से दुश्मनी भी न हो।
पंडित वाद बदंते झूठा।
पंडित वाद बदंते झूठा। राम कह्याँ दुनियाँ गति पावै, खाँड कह्याँ मुख मीठा।। पावक कह्याँ पाव जे दाझैं, जल कहि त्रिषा बुझाई। भोजन कह्याँ भूष जे भाजै, तौ सब कोई तिरि जाई।। नर कै साथि सूवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै। जो कबहूँ उडि़ जाई जंगल में, बहुरि न सूरतै आनै।। साची प्रीति बिषै माया सूँ, हरि भगतानि सूँ हासी। कहै कबीर प्रेम नहीं उपज्यौ, बाँध्यो जमपुरि जासी।।अर्थ: कबीर कहते हैं कि पंडित झूठी बहस करते हैं, जैसे खांड़ कहने से मुँह मीठा नहीं हो जाता, वैसे ही राम कहने मात्र से दुनिया को मुक्ति नहीं मिल जाती है। केवल आग कहने से पैर नहीं जलता, जल कहने से प्यास नहीं बुझ जाती, भोजन कहने से भूखे का पेट नहीं भर जाता है अगर ऐसा होने लगता, हर कोई मुक्त हो जाता। आदमी के साथ तोता भी हरि का नाम बोलता है, पर वह हरि का प्रताप नहीं जानता है और यदि एक बार वह पिंजड़े से निकलकर जंगल में उड़ जाये, तो दुबारा हरि भी नहीं बोलता। ऐसे पंडितों को शूद्रों से रंच मात्र भी प्रेम नहीं है, मनुष्यों से प्रेम किये बिना कोई सन्त नहीं हो सकता। वे एंसे सन्तों का उपहास करते हैं।
संत कबीर के दोहे और उनके अर्थ
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमान, आपस में दोउ लड़ी मुए, मरम न कोउ जान।अर्थ: कबीर कहते हैं कि हिन्दू कहता है कि मेरा ईश्वर राम है और मुस्लिम कहता है मेरा ईश्वर अल्लाह है – इसी बात पर दोनों धर्म के लोग लड़ कर मर जाते है उसके बाद भी कोई सच नहीं जान पाता। कबीर ये बात आज से 500 साल पहले कह रहे थे लेकिन आज भी उनकी बात एक दम सच है। हिंदू-मुस्लिम धर्म के नाम पर आपस में लड़ रहे हैं इससे समाज में नफ़रत फैल रही है। हमें ऐसा नहीं करना चाहिए। धर्म के अलावा कबीर जाति के सवाल पर भी बहुत ज़ोर देते हैं और एक समतामूलक समाज को बनाने की प्रेरणा देते हैं।
कहु पाँडे सुचि कवन ठाँव
कहु पाँडे सुचि कवन ठाँव, जिहि घरि भोजन बैठि खाऊँ। माता जूठा पिता पुनि जूठा, जूठे पफल चित लागे।। जूठा आंगन जूठा जाँनाँ, चेतहु क्यूँ न अभागे।। अन्न जूठा पाँनी पुनि जूठा, जूठे बैठि पकाया। जूठी कड़छी अन्न परोस्या, जूठे जूठा खाया।। चैका जूठा गोबर जूठा, जूठी का ढोकारा। कहै कबीर तेई जन सूचे, जे हरि भजि तजहिं विकारा।।अर्थ: ब्राह्मणों के धर्म, दर्शन, सामाजिक व्यवहार और आचरण तक जाता है। ब्राह्मण वेदान्ती और सनातनी दोनों थे, किन्तु वर्णाश्रम को दोनों मानते थे। वे केवल वर्ण-विचार से ही नहीं, जाति-विचार से भी ग्रस्त थे। वे स्वयं को शुद्ध और दूसरों को अशुद्ध समझते थे, जबकि दलित जातियाँ तो उनके लिये अछूत हीं थीं। वे ब्राह्मण धर्म-शास्त्रों के हवाले से वर्णव्यवस्था और जातिवाद को न्यायोचित ठहराते थे। बीसवीं सदी में इसी आधार पर महात्मा गाँधी ने वर्णव्यवस्था को धर्म सम्मत और न्याय संगत ठहराया था।
ऐसी वाणी बोलिए
ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये । औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ।अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि इंसान को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को बहुत अच्छी लगे। ऐसी भाषा दूसरे लोगों को तो सुख पहुँचाती ही है, इसके साथ खुद को भी बड़े आनंद का अनुभव होता है।
माटी का एक नाग बनाके, पूजे लोग लुगाया । जिन्दा नाग जब घर में निकले, ले लाठी धमकाया ।।अर्थ: कबीर इस दोहे के ज़रिए कहते हैं कि लोग पूजा पाठ में आडंबर और दिखावा करते है, मसलन सांप की पूजा करने के लिए वे माटी का सांप बनाते है। लेकिन वास्तव में जब वही सांप उनके घर चला आता है तो उसे लाठी से पिट पिट देते हैं। यहाँ कबीर लोगों के दोगलेपन को दिखाने की कोशिश करते हैं। कबीर सांप्रदायिकता के भी विरोधी थे और एक दोहे में समझाते हैं कि कैसे हिंदू और मुसलमान धर्म के नाम पर आपस में लड़ रहे हैं, वो कहते हैं।
कबीरा कहे ये जग अंधा
कबीरा कहे ये जग अंधा, अंधी जैसी गाय, बछड़ा था सो मर गया…झूठी चाम चटायअर्थ: कबीर यहां आगाह करते हैं कि कुछ लोग इस दुनिया को अपनी दुकान चलाने के लिए अंधा बनाए हुए हैं। वो उदाहरण देते हुए समझाते हैं कि जैसे जब गाय का बछड़ा मर जाता है तो उसका दूध निकालने के लिए लोग बछड़े की खाल में भूसा भरके गाय के सामने रख देते हैं और गाय उसे बछड़ा समझकर चाटती रहती है और मालिक उसका दूध निकाल लेता है। कबीर यहां समझाते हैं कि जिस तरह से विवेकहीन गाय सच नहीं पहचान पाती उस तरह से लोग ये नहीं समझ पाते कि कैसे धर्म और पाखंडवाद के नाम पर उनका मूर्ख़ बनाया जा रहा है। गाय की तरह पाखंडी लोग लोगों को बेवकूफ बनाकर उनका दूध यानी धन और संपत्ति लूटते रहते हैं। धार्मिक गुरुओं और मंदिर-मठों में दंडवत होने वाले बहुजन समाज के लोगों के लिए कबीर की ये सीख आज सबसे ज्यादा अहम हो जाती है। हमें ये पहचानना होगा कि कौन हमें गाय की तरह बेवकूफ बना कर मलाई खा रहा है।
तिनका कबहुँ ना निन्दिये
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय, कबहुँ उड़ी आँखीन पड़े, तो पिर घनेरि होय।अर्थ: कबीर कहते है कि हमारे पाँव के नीचे जो छोटा सा तिनका दबा हुआ रहता है हमें उसकी भी कभी निंदा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यदि वही छोटा तिनका उड़ कर हमारी आखों में आ गया तो ज़बरदस्त दर्द झेलना पड़ेगा। यानी हमें आपस में बिना किसी द्वेष के रहना चाहिए और समाज में हर किसी का सम्मान करना चाहिए।
निंदक नियेरे राखिये, आँगन कुटी छावायें । बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुहाए ।अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि निंदकहमेशा दूसरों की बुराइयां करने वाले लोगों को हमेशा अपने पास रखना चाहिए, क्यूंकि ऐसे लोग अगर आपके पास रहेंगे तो आपकी बुराइयाँ आपको बताते रहेंगे और आप आसानी से अपनी गलतियां सुधार सकते हैं। इसीलिए कबीर जी ने कहा है कि निंदक लोग इंसान का स्वभाव शीतल बना देते हैं।
माटी कहे कुमार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदुंगी तोहे ।अर्थ: जब कुम्हार बर्तन बनाने के लिए मिटटी को रौंद रहा था, तो मिटटी कुम्हार से कहती है – तू मुझे रौंद रहा है, एक दिन ऐसा आएगा जब तू इसी मिटटी में विलीन हो जायेगा और मैं तुझे रौंदूंगी।
गुरु गोविंद दोउ खड़े, काके लागूं पाँय । बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो मिलाय॥
अर्थ: कबीर दास जी इस दोहे में कहते हैं कि अगर हमारे सामने गुरु और भगवान दोनों एक साथ खड़े हों तो आप किसके चरण स्पर्श करेंगे? गुरु ने अपने ज्ञान से ही हमें भगवान से मिलने का रास्ता बताया है इसलिए गुरु की महिमा भगवान से भी ऊपर है और हमें गुरु के चरण स्पर्श करने चाहिए।
मलिन आवत देख के, कलियन कहे पुकार ।
फूले फूले चुन लिए, कलि हमारी बार ।अर्थ: मालिन को आते देखकर बगीचे की कलियाँ आपस में बातें करती हैं कि आज मालिन ने फूलों को तोड़ लिया और कल हमारी बारी आ जाएगी। भावार्थात आज आप जवान हैं कल आप भी बूढ़े हो जायेंगे और एक दिन मिटटी में मिल जाओगे। आज की कली, कल फूल बनेगी।
पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात | देखत ही छुप जाएगा है, ज्यों सारा परभात ||
अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि इंसान की इच्छाएं एक पानी के बुलबुले के समान हैं जो पल भर में बनती हैं और पल भर में खत्म। जिस दिन आपको सच्चे गुरु के दर्शन होंगे उस दिन ये सब मोह माया और सारा अंधकार छिप जायेगा।
सब धरती काजग करू
सब धरती काजग करू, लेखनी सब वनराज ।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाए ।
अर्थ: अगर मैं इस पूरी धरती के बराबर बड़ा कागज बनाऊं और दुनियां के सभी वृक्षों की कलम बना लूँ और सातों समुद्रों के बराबर स्याही बना लूँ तो भी गुरु के गुणों को लिखना संभव नहीं है।
यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान । शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान ।अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि यह जो शरीर है वो विष जहर से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान हैं। अगर अपना शीशसर देने के बदले में आपको कोई सच्चा गुरु मिले तो ये सौदा भी बहुत सस्ता है।
बड़ा भया तो क्या भया
बड़ा भया तो क्या भया, जैसे पेड़ खजूर । पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर ।अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि खजूर का पेड़ बेशक बहुत बड़ा होता है लेकिन ना तो वो किसी को छाया देता है और फल भी बहुत दूरऊँचाई पे लगता है। इसी तरह अगर आप किसी का भला नहीं कर पा रहे तो ऐसे बड़े होने से भी कोई फायदा नहीं है।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय । जो मन देखा आपना, मुझ से बुरा न कोय ।अर्थ: कबीर दास जी कहते हैं कि मैं सारा जीवन दूसरों की बुराइयां देखने में लगा रहा लेकिन जब मैंने खुद अपने मन में झाँक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई इंसान नहीं है। मैं ही सबसे स्वार्थी और बुरा हूँ भावार्थात हम लोग दूसरों की बुराइयां बहुत देखते हैं लेकिन अगर आप खुद के अंदर झाँक कर देखें तो पाएंगे कि हमसे बुरा कोई इंसान नहीं है।
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