कबीर दास एक महान समाज सुधारक, कवि व संत थे। उनका जन्म 14वीं सदी के अंत (1398 ई.) में काशी में हुआ था। वे नीरू-नीमा नामक जुलाहा दंपति दम्पति को तालाब के किनारे पड़े मिले थे‚ जिन्होंने ही कबीरदास जी का पुत्र के समान पालन-पोषण किया। कबीर का विवाह लोई नामक स्त्री के साथ हुआ था एवं उनकी कमाल और कमाली नाम की दो सन्तानें पैदा हुई। उस समय मध्यकालीन भारत पर सैयद साम्राज्य का शासन हुआ करता था।
कबीर दास का जन्म स्थान | Birthplace of Kabir Das
Kabir Das का जन्म मगहर, काशी में हुआ था। कबीर दास ने अपनी रचना में भी वहां का उल्लेख किया है: “पहिले दरसन मगहर पायो पुनि काशी बसे आई” अर्थात काशी में रहने से पहले उन्होंने मगहर देखा था और मगहर आजकल वाराणसी के निकट ही है और वर्तमान में वाराणसी के निकट ही कबीरदास जी का मकबरा भी है।
कबीरदास ने अपनी रचनाओं के माध्यम से उस समय के समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने का प्रयास किया जिसकी वजह से उन्हें “समाज सुधारक” कहा जाने लगा। उन्होंने जाति और धर्म से ऊपर उठकर सभी धर्माें में व्याप्त बुराइयों पर कठाेरता के साथ अपनी रचनाओं के माध्यम से विरोध किया। जब कबीर का देहांत हुआ तब हिंदू व मुस्लिम लोगों ने उनको अपने-अपने धर्म का संत माना।
कबीर दास का परिचय (Introduction to Kabir Das)
नाम | कबीर दास (Kabir Das) |
---|---|
जन्म | 1398 ई. , स्थान– वाराणसी उत्तर-प्रदेश |
माता | नीमा (किवदंती के अनुसार) |
पिता | नीरू (किवदंती के अनुसार) |
पत्नी का नाम | लोई |
सन्तानें | 02 सन्तान पुत्र का नाम कमाल एवं पुत्री कमाली |
रचनाएँ | साखी, सबद, रमैनी |
प्रसिद्धि का कारण | समाज-सुधारक, कवि, संत |
मृत्यु | 1518 ई़ , स्थान– मगहर, उत्तर-प्रदेश |
उम्र | 120 वर्ष |
कबीर का पालन-पोषण उत्तरप्रदेश के काशी में हुआ था। वह मुस्लिम जुलाहा दंपति के यहां बड़े हो रहे थे। काशी में ही उन्हें एक गुरु रामानंद के बारे में पता चला।
रामानंद उस समय के एक महान हिंदू संत थे। गुरु रामानंद काशी में ही रहकर के अपने शिष्यों व लोगों को भगवान विष्णु में आसक्ति के उपदेश दिया करते थे। उनके शैक्षणिक उपदेशों के मुताबिक भगवान हर इंसान में हैं, हर चीज में हैं।
कबीर की शिक्षा के बारे में यहाँ कहा जाता हैं कि कबीर को पढने-लिखने की रूचि नहीं थी। बचपन में उन्हें खेलों में किसी भी प्रकार शौक नहीं था। गरीब माता-पिता होने से मदरसे में पढ़ने लायक स्थिति नहीं थी। दिन भर भोजन की व्यवस्था करने के लिए कबीर को दर-दर भटकना पड़ता था। इसी कारण कबीर कभी किताबी शिक्षा नहीं ले सके।
आज हम जिस कबीर के दोहे के बारे में पढ़ते हैं वह स्वयं कबीर ने नहीं बल्कि उनके शिष्यों ने लिखा हैं। कबीर के मुख से कहे गए दोहे का लेखन कार्य उनके शिष्यों ने किया था।
रामानंद जी, गंगा स्नान करने के लिए सीढ़ियों से उतर रहे थे कि तभी अचानक उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया उनके मुख से तत्काल राम-राम शब्द निकल पड़ा उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मंत्र मान लिया और रामानंद जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया।
कुुछ कबीरपंथीयों का यह मानना है कि कबीर दास का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ था।
कबीर के शब्दों में—
“काशी में परगट भये ,रामानंद चेताये “
कबीर दास की शिक्षा | Education of Kabir Das in Hindi
Kabir Das जब धीरे-धीरे बड़े होने लगे तो उन्हें इस बात का आभास हुआ कि वह ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं वह अपनी अवस्था के बालकों से एकदम भिन्न थे। मदरसे भेजने लायक साधन उनके माता—पिता के पास नहीं थे। कबीर के माता पिता अत्यन्त ही गरीब होने के फलस्वरुप कबीर जी शिक्षा से दूर रहे। शिक्षा पर ही कबीरदास जी ने अपना एक दोहा लिखा हैः–
मसि कागद छुवो नहीं, कमल गही नहिं हाथ
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।
जिसका अर्थ है कि पहले गुरु को प्रणाम करूंगा क्योंकि उन्होंने ही गोविंद तक पहुंचने का मार्ग बताया है। बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके।
Marital life of Kabir Das in Hindi कबीर दास का वैवाहिक जीवन
Kabir Das का विवाह वनखेड़ी बैरागी की पालिता कन्या ‘लोई’ के साथ हुआ। कबीर दास की कमाल और कमाली नामक दो संतानें भी थी जबकि कबीर को कबीर पंथ में बाल ब्रह्मचारी माना जाता है इस पंथ के अनुसार कमाल उसका शिष्य था और कमाली तथा लोई उनकी शिष्या थी।
लोई शब्द का प्रयोग कबीर ने एक जगह कंबल के रूप में भी किया है कबीर की पत्नी और संतान दोनों थे।
एक जगह लोई को पुकार कर कबीर कहते हैं:-
कहत कबीर सुनो रे भाई
हरि बिन राखल हार न कोई।
यह हो सकता है कि पहले लोई पत्नी होगी, बाद में कबीर ने इन्हें शिष्या बना लिया हो।
कबीर दास का व्यक्तित्व
हिंदी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ।
ऐसा व्यक्तित्व तुलसीदास का भी था। परंतु तुलसीदास और कबीर में बड़ा अंतर था।
यद्यपि दोनों ही भक्त थे, परंतु दोनों स्वभाव, संस्कार दृष्टिकोण में बिल्कुल अलग-अलग थे मस्ती स्वभाव को झाड़-फटकार कर चल देने वाले तेज ने कबीर को हिंदी साहित्य का अद्भुत व्यक्ति बना दिया।
उसी ने कबीर की वाणी में अनन्य असाधारण जीवन रस भर दिया। इसी व्यक्तित्व के कारण कबीर की उक्तियां श्रोता को बलपूर्वक आकर्षित करती हैं। इसी व्यक्तित्व के आकर्षण को सहृदय समालोचक संभाल नहीं पाता और रीझकर कबीर को कवि कहने में संतोष पाता है।
ऐसे आकर्षक वक्ता को कवि ना कहा जाए तो और क्या कहा जाए?
चलिए अब कबीर दास की कृतियों के बारे में जानते हैं— संत कबीर दास ने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, कबीर दास ने इन्हें अपने मुंह से बोला और उनके शिष्यों ने इन ग्रंथों को लिखा। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकांड के घोर विरोधी थे।
वे अवतार, मूर्ति, रोजा, ईद, मस्जिद, मंदिर आदि को नहीं मानते थे।
कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न भिन्न है। एच. एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ मौजूद हैं। विशप जी. एच. वेस्टकाॅट ने कबीर के 74 ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड़ ने हिंदुत्व में 71 पुस्तकें गिनाई हैं। कबीर की वाणी का संग्रह बीजक के नाम से प्रसिद्ध है।
इसके तीन भाग हैं—
कबीर दास का साहित्यिक परिचय | Literary introduction of Kabir Das
Kabir Das संत, कवि और समाज सुधारक थे। इसलिए उन्हें संत कबीरदास (Sant Kabir Das) भी कहा जाता है। उनकी कविता का प्रत्येक शब्द पाखंडीयों के पाखंडवाद और धर्म के नाम पर ढोंग और स्वार्थपूर्ति की निजी दुकानदारों को ललकारता हुआ आया और असत्य अन्याय की पोल खोलकर रख दी।
कबीर का अनुभूत सत्य अंधविश्वासों पर बारूदी मुकाबला था। उनके द्वारा बोला गया था कभी ऐसा जो आज तक के परिवेश पर सवालिया निशाना बनकर चोट भी करता था और खोट भी निकालता था।
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कबीरदास की भाषा और शैली | Language style of Kabir Das
Kabir Das की भाषा शैली में उन्होंने अपनी बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वो अपनी जिस बात को जिस रूप में प्रकट करना चाहते थे उसे उसी रूप में प्रकट करने की क्षमता उनके पास थी।
भाषा भी मानो कबीर के सामने कुछ लाचार सी थी उसमें ऐसी हिम्मत नहीं थी कि उनकी इस फरमाइश को ना कह सके। वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य—रसिक कव्यांद का आस्वादन कराने वाला समझे तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता। कबीर ने जिन तत्वों को अपनी रचना से ध्वनित करना चाहा है, उसके लिए कबीर की भाषा से ज्यादा साफ और जोरदार भाषा की संभावना भी नहीं है और इससे ज्यादा जरूरत भी नहीं है।
कबीर दर्शन | Kabir Darshan
यह उनके जीवन के बारे में अपने दर्शन का एक प्रतिबिंब हैं। उनके लेखन मुख्य रूप से पुनर्जन्म और कर्म की अवधारणा पर आधारित थे। कबीर के जीवन के बारे में यह स्पष्ट था कि वह एक बहुत ही साधारण तरीके से जीवन जीने में विश्वास करते थे।
उनका परमेश्वर की एकता की अवधारणा में एक मजबूत विश्वास था उनका एक विशेष संदेश था कि चाहे आप हिंदू भगवान या मुसलमान भगवान के नाम का जाप करें, किंतु सत्य यह है कि ऊपर केवल एक ही परमेश्वर है जो इस खूबसूरत दुनिया के निर्माता है।
जो लोग इन बातों से ही कबीर दास की महिमा पर विचार करते हैं वे केवल सतह पर ही चक्कर काटते हैं कबीर दास एक बहुत ही महान और जबरदस्त क्रांतिकारी पुरुष थे।
आरंभ से ही कबीर हिंदू भाव की उपासना की ओर आकर्षित हो रहे थे अतः उन दिनों जब रामानंद जी की बड़ी धूम थी। अवश्य वे उनके सत्संग में भी सम्मिलित होते रहे होंगे।
रामानुज जी के शिष्य परंपरा में होते हुए भी रामानंद जी भक्ति का एक अलग उदार मार्ग निकाल रहे थे जिसमें जाति-पाति का भेद और खानपान का अचार दूर कर दिया गया था। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर को ‘राम नाम’ रामानंद जी से ही प्राप्त हुआ।
लेकिन आगे चलकर कबीर के राम, रामानंद के राम से भिन्न हो गए और उनके प्रवृत्ति निर्गुण उपासना की और दृढ़ हुई।
संत शब्द संस्कृत सत् प्रथमा का बहुवचन रूप है जिसका अर्थ होता है सज्जन और धार्मिक व्यक्ति।
हिंदी में साधु पुरुषों के लिए यह शब्द व्यवहार में आया। कबीर, सूरदास, गोस्वामी तुलसीदास, आदि पुराने कवियों ने इन शब्द का व्यवहार साधु और परोपकारी पुरुष के अर्थ में किया है और उसके लक्षण भी दिए हैं।
यह आवश्यक नहीं है कि संत उसे ही कहा जाए जो निर्गुण ब्रह्म का उपासक हो। इसके अंतर्गत लोगमंगलविधायी में सभी सत्पुरुष आ जाते हैं, किंतु कुछ साहित्यकारों ने निर्गुणी भक्तों को ही संत की उपाधि दे दी और अब यह शब्द उसी वर्ग में चल पड़ा है।
मूर्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने एक साखी हाजिर कर दी—
पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पुजौपहार
था ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।
कबीरदास के विचार
Kabir Das ने जो व्यंग्यात्मक प्रहार किए और अपने को सभी ऋषि-मुनियों से आचारवान एवं सच्चरित्र घोषित किया, उसके प्रभाव से समाज का निम्न वर्ग प्रभावित न हो सका एवं आधुनिक विदेशी सभ्यता में दीक्षित एवं भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति में कुछ लोगों को सच्ची मानवता का संदेश सुनने को मिला।
रविंद्र नाथ ठाकुर ने ब्रह्म समाज विचारों से मेल खाने के कारण कबीर की वाणी का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया और उससे आजीवन प्रभावित भी रहे। कबीर दास की रचना मुख्यतः साखियों एवं पदों में हुई है।
इसमें उनकी सहानुभूति तीव्र रूप से सामने आई है।
संत परंपरा में हिंदी के पहले संत साहित्य भाष्टा जयदेव हैं। ये गीत गोविंदकार जयदेव से भिन्न है। शेनभाई, रैदास, पीपा, नानकदेव, अमरदास, धर्मदास, दादूदयाल, गरीबदास, सुंदरदास, दरियादास, कबीर की साधना हैं।
कबीर दास की मृत्यु | Kabir Das Death
Kabir Das biography ने काशी के निकट मगहर में अपने प्राण त्याग दिए। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर भी विवाद उत्पन्न हो गया था हिंदू कहते हैं कि उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीति से होना चाहिए और मुस्लिम कहते थे कि मुस्लिम रीति से।
इसी विवाद के चलते जब उनके शव से चादर हट गई तब लोगों ने वहां फूलों का ढेर पड़ा देखा और बाद में वहां से आधे फुल हिंदुओं ने उठाया और आधे फूल मुसलमानों ने।
मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीती से उन फूलों का अंतिम संस्कार किया। मगहर में कबीर की समाधि है उनके जन्म की तरह ही उनकी मृत्यु तिथि एवं घटना को भी लेकर मतभेद है।
किंतु अधिकतर विद्वान उनकी मृत्यु संवत् 1575 विक्रमी (सन 1518 ई०) को मानते हैं, लेकिन बाद में कुछ इतिहासकार उनकी मृत्यु को 1448 को मानते हैं।
कबीर दास के दोहे | Kabir Das ke Dohe
Kabir Das एक महान व्यक्ति थे उनकी महानता ने ही उन्हें इतना महत्वपूर्ण व प्रसिद्ध इंसान बनाया।
Kabir Das ke Dohe भी उनकी तरह ही महान और मीठे हैं।
कबीर दास के प्रत्येक दोहे (Kabir Das ke Dohe) का अपने आप में एक महत्वपूर्ण अर्थ है यदि आप उनके दोहे को सुनकर उसे आप अपने जीवन में लागू करते हैं तो आपको अवश्य ही मन की शांति के साथ ईश्वर की प्राप्ति होगी।
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कबीर के दोहे अर्थ सहित (Kabir ke Dohe with Hindi Meaning)
Kabir Das Doha No. 1 –
सुख में सुमिरन ना किया, दु:ख में किया याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥ 1 ॥
Such Me Sumiran Na Kiya, Dukh Me Kiya Yaad
Kah Kabira Ta Das Ki, Koun Sune Fariyaad
अर्थ : कोई व्यक्ति सुख में ईश्वर को याद नहीं करता हैं और केवल दुःख में भगवन को याद करता हैं तो कबीर के अनुसार इस संसार में उसके दुःख कोई नहीं हर सकता हैं. क्योकि प्रभु आनंदस्वरूप हैं।
Kabir Das Doha No. 2 –
तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय ।
कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय ॥ 2 ॥
Tinka Tinka Kabhun Na Nindyen, Jo Paayan Tar Hoye
Kabhun Aankhin Pare, Peer Ghaneri Hoy.
अर्थ : संसार में मौजूद सभी वस्तुओं और जीवों का सम्मान करने की सलाह दी हैं. कबीर ने इस दोहे में एक छोटे से तिनके का उदहारण देते हुए इस बात को समझाया हैं. कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके जो कि आपके पांव के नीचे दबा हुआ हैं, की बुराई नहीं करना चाहिए. जब कभी भी वह तिनका उड़कर आँखों में गिर जाता हैं तो उससे ज्यादा तकलीफ़देह चीज़ दुनिया में और कोई सी नहीं होती हैं।
Kabir Das Doha No. 3 –
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दें, मन का मनका फेर ॥ 3 ॥
Mala Ferat Jug Bhaya, Phira Na Man Ka Pher
Kar Ka Man Ka Daar De, Man Ka Manka Fer.
अर्थ : धार्मिक ढकोसले को चिन्हित करते हुए मन को साफ़ और निश्छल बनाने को कहते हैं. कबीर ने इस दोहे में कहा हैं कि केवल मोतियों की माला लम्बे समय तक हाथ में फेर लेने से मन के भाव और अशांति ठीक नहीं होती हैं. कबीर ने ऐसे व्यक्ति को सलाह देते हुआ कहा हैं कि माला फेरना छोड़कर मन को मोतियों में बदलों।
Kabir Das Doha No. 4 –
साईं इतना दीजिये, जा में कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥ 4 ॥
Sai Itna Dijiye, Ja Me Kutumb Samaay
Main Bhi Bhukha Naa Rahu, Sadhu Na Bhukha Jaye.
अर्थ : स्वयं को धन की मोहमाया से दूर रखने की बात कही हैं. कबीर कहते हैं कि ईश्वर मुझे केवल इतना ही धन देना जिससे मेरा गुजरा हो सके और मैं भूखा ना मरू और ना ही मेरे घर आया कोई अतिथि भूखा जाए।
Kabir Das Doha No. 5 –
बलिहारी गुरु आपनो, घड़ी-घड़ी सौ सौ बार ।
मानुष से देवत किया करत न लागी बार ॥ 5 ॥
Balihari Guru Aapno, Ghadi Ghadi Sau Sau Baar
Manush Se Devat Kiya Karat Na Laagi Baar.
अर्थ : गुरु के प्रति अपनी भावना को व्यक्त किया हैं. कबीर कहते हैं कि मैं अपने जीवन का प्रत्येक क्षण गुरु पर सैकड़ों बार न्यौछावर करता हूँ. जिनकी कृपा ने उन्हें बिना विलम्ब के मनुष्य से देवता कर दिया।
Kabir Das Doha No. 6 –
दुख में सुमरिन सब करे, सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमरिन करे, दुख काहे को होय ॥ 6 ॥
Dukh Me Sumiran Sab Kare, Sukh Me Kare Na Koy
Jo Sukh Me Sumiran Kare, Dukh Kahe Ko Hoy.
अर्थ : इंसान के स्वार्थी स्वाभाव का वर्णन किया हैं कबीर के अनुसार जब इंसान पर कोई दुःख या कोई विपदा आती हैं तभी वह भगवान के पास जाता हैं‚ सुख के दिन में वह कभी भी भगवान को याद नहीं करता हैं. कबीर कहते हैं कि यह मनुष्य सुख के दिन में भी भगवान को याद करेगा तो उसे कभी भी दु:खों का सामना करना पड़ेगा ही नहीं।
Kabir Das Doha No. 7 –
जाति न पूछो साधु की, पूछि लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ॥ 7 ॥
Jaati Na Pucho Sadhu Ki, Puchi Lijiye Gyan
Mol Karo Talwaar Ka, Pada Rahan Do Myan.
अर्थ : जातिवाद का विरोध कर ज्ञान को प्रायिकता दी हैं, कबीर कहते हैं कि साधू यानी सज्जन व्यक्ति से कभी उनकी जाति नहीं पूछनी चाहिए‚ उनके अन्दर कितना ज्ञान हैं वह देखना चाहिए‚ क्योंकि वह ज्ञान ही हमारे जीवन में काम आ सकता हैं जिस प्रकार किसी तलवार का मूल्य होता हैं ना कि मयान का।
Kabir Das Doha No. 8 –
गुरु गोविन्द दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो बताय ॥ 8 ॥
Guru Govind Dono Khade, Kake Laun Pay
Balihari Guru Aapno Govind Diyo Batay.
अर्थ : गुरु का स्थान भगवान से भी ऊपर बताया हैं. कबीर दास कहते हैं गुरु और गोविन्द (भगवान) दोनों मेरे समझ खड़े हैं किसका पहले आदर-सम्मान किया जाए‚ दोनों का अपना अलग ही महत्व हैं‚ उनके अनुसार इस स्थिति में गुरु का स्थान ही सर्वोतम बताया हैं जिनकी कृपा से मुझे गोविन्द का दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ हैं।
Kabir Das Doha No. 9 –
जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप ।
जहाँ क्रोध तहाँ पाप है, जहाँ क्षमा तहाँ आप ॥ 9 ॥
Jahan Daya Tahan Dharm Hai, Jahan Lobh Tahan Pap
Jahan Krodh Tahan Pap Hai, Jahan Kshama Tahan Aap
अर्थ : जहाँ दयाभाव हैं वहां धर्मं का वास होता हैं‚ जहाँ लालच और क्रोध है वहाँ पाप बसता है‚ जहाँ क्षमा और सहानुभूति होती है, वहाँ ईश्वर रहते हैं।
Kabir Das Doha No. 10 –
कबिरा माला मनहि की, और संसारी भीख ।
माला फेरे हरि मिले, गले रहट के देख ॥ 10 ॥
Kabira Mala Manhi Ki, Aur Sansari Bheekh
Mala Fere Hari Mile, Gale Rahat Ke Dekh.
अर्थ : भीख और माला जपने का विरोध किया हैं‚ कबीर कहते हैं कि माला मन की फेरनी चाहिए और संसार में भीख मांगने से बुरा और कुछ नहीं हैं‚ यदि मन की माला फेरी जाए तो हरि मिल जाते हैं बस एक बार चरखें रूपी गले में रखकर देखना हैं।
Kabir Das Doha No. 11 –
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट ।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट ॥ 11 ॥
Loot Sake To Loot Le, Raam Naam Ki Loot
Paache Phire Pachtaoge, Pran Jahin Jab Chhot.
अर्थ : भक्ति के लिए समय देखने की मनाही की हैं‚ कबीर कहते हैं कि व्यक्ति को जब भी समय मिले उसे राम नाम रूपी धन लुट लेना चाहिए. यह प्राण अनिश्चित हैं‚ निकल जाने के बाद इसका पछतावा रह जायेगा।
Kabir Das Doha No. 12 –
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार ।
तरुवर ज्यों पत्ती झड़े, बहुरि न लागे डार ॥ 12 ॥
Darlabh Manush Janm Hai Deh Na Barambaar
Taruvar Jyon Patti Jhade, Bahuri Na Lage Daar.
अर्थ : जीवन के महत्व को बताया हैं उनके अनुसार मनुष्य रूपी यह जीवन काफी मुश्किलों से मिलता हैं और यह शरीर बार- बार नहीं मिलता हैं जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाने के बाद उसे पेड़ पर पुनः नहीं लगाया जा सकता हैं।
Kabir Das Doha No. 13 –
कबीरा ते नर अन्ध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रुठै नहीं ठौर ॥ 13 ॥
Kabira Te Nar Andh Hain, Guru Ko Kahte Aur
Hari Ruthe Guru Thour Hai, Guru Ruthe Nahi Thour.
अर्थ : गुरु के सम्मान को प्रायिकता ही हैं कबीर कहते हैं कि जो इंसान गुरु का सम्मान नहीं करता है वह नेत्र होते हुए भी नेत्रहीन के समान हैं‚ विपदा समय जो ईश्वर भी आपका साथ नहीं दे तब वह गुरु ही हैं जो आपको राह दिखा कर उस परिस्थिति से निकाल सकते हैं लेकिन यदि गुरु ने आपका साथ छोड़ दिया तो इस धरती पर आपको कोई सहारा नहीं दे सकता हैं।
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Kabir Das Doha No. 14 –
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय ।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय ॥ 14 ॥
Panch Pahar Dhandhe Gaya, Teen Pahar Gya Soy.
Ek Pahar Hari Naam Bin, Mukti Kaise Hoy.
अर्थ : सही समय पर ईश्वर पूजा करने ही सलाह दी हैं‚ कबीर के अनुसार मनुष्य दिन के पांच पहर काम करता हैं और तीन पहर नींद लेता हैं. यदि वह एक पहर भी ईश भक्ति में नहीं लगा सकता हैं तो उसे कभी भी इस संसार की मोह माया से मुक्ति नहीं मिल सकती हैं।
Kabir Das Doha No. 15 –
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान ॥ 15 ॥
Kabira Soya Kya Kare, Uthi Na Bhaje Bhagwan
Jam Jab Ghar Le Jayenge, Padi Rahegi Myan
अर्थ : सोकर मनुष्य को कुछ प्राप्त नहीं होता हैं इससे अच्छा तो उठकर ईश्वर के थोड़े भजन कर लेना उपयोगी हैं‚ क्योंकि जिस समय यमराज प्राण लेने आयेगे उस समय यह रुष्ट-पुष्ट शरीर मयान की भाति पड़ा रह जायेगा‚ तलवार रूप आत्मा तुम्हारे शरीर से निकल जाएगी।
Kabir Das Doha No. 16 –
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रतनन की खान ।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आन ॥ 16 ॥
Shilvant Sabse Bada, Sab Ratanan Ki Khan
Teen Lok Ki Sampada, Rahi Shil Me Aan
अर्थ : विनम्रता के गुण को बताया गया हैं. कबीर कहते हैं कि इंसान के जीवन में विनम्रता से बड़ा कोई गुण नहीं होता हैं. विनम्रता से व्यक्ति शत्रु का भी दिल जीत लेता हैं‚ यह सब गुणों की खान हैं‚ तीनों लोकों में दौलत हासिल करने के बाद भी सम्मान केवल विनम्रता से ही मिल पता हैं।
Kabir Das Doha No. 17 –
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥ 17 ॥
Maya mari na mann mara, mar mar gaye sharir
Aasha trishna na mari, Keh gaye das kabir
अर्थ : माया, मन, शरीर सब नश्वर हैं लेकिन मन में उठने वाली आशा और तृष्णा कभी नष्ट नहीं होती जो इसमें फंस जाता हैं वह कभी भी सुखी नहीं रहता हैं इसीलिए मोहमाया में कभी नहीं फंसना चाहिए।
Kabir Das Doha No. 18 –
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥ 18 ॥
Dheere Dheere Re Manaa, Dheere Sab Kuch Hoy
Maali Seenche Sau Ghada, Ritu Aay Fal Hoye.
अर्थ : धीरज ही जीवन का आधार हैं, जीवन के हर दौर में धीरज का होना जरुरी है फिर वह विद्यार्थी जीवन हो, वैवाहिक जीवन हो या व्यापारिक जीवन. कबीर कहते है अगर कोई माली किसी पौधे को 100 घड़े पानी भी डाले तो वह एक दिन में बड़ा नहीं होता और न ही बिन मौसम फल देता है‚ हर बात का एक निश्चित वक्त होता है जिसको प्राप्त करने के लिए व्यक्ति में धीरज का होना आवश्यक है।
Kabir Das Doha No. 19 –
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीना जन्म अनमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥ 19 ॥
Raat Gavayi Soy Ke , Diwas Ganvaya Khay
Heena Janm Anmol Tha, Kodi Badale Jaay
अर्थ : रात सोकर नींदों में गँवा दी. दिन खाना खाने में गुजार दिया‚ ईश्वर ने दिया हीरे जैसा अनमोल जीवन, कोडियों की भांति गँवा दिया. इसीलिए जीवन का हर पल का सदुपयोग करना चाहिए।
Kabir Das Doha No. 20 –
नींद निशानी मौत की, उठ कबीरा जाग ।
और रसायन छांड़ि के, नाम रसायन लाग ॥ 20 ॥
Neend Nishani Maut Ki,Uth Kabira Jaag
Aur Rasaayan Chaadi Ke, Naam Rasaayan Laag.
अर्थ : नींद मौत की निशानी हैं इसीलिए कबीर के अनुसार सभी रसायन (यानि शराब मदिरा) को छोड़कर मनुष्य को नाम रसायन (यानी ईश भक्ति) में लग जाना चाहिए।
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Kabir Das Doha No. 21 –
जो तोकु कांटा बुवे, ताहि बोय तू फूल ।
तोकू फूल के फूल है, बाकू है त्रिशूल ॥ 21 ॥
Jo Tuko Kanta Buve, Taahi Boy Tu Ful
Taku Ful Ke Ful Hai, Baku Hai Trishul.
अर्थ : व्यक्ति व्यवहार के बारे में चर्चा की हैं उन्होंने उदाहरण के माध्यम से बताया हैं कि जो व्यक्ति आपके लिए कांटे बोता हैं अर्थात मुश्किलें खड़ी करता हैं तब भी उसके लिए फुल बोइये‚ इससे आपके आस पास आस-पास फूल ही फूल खिलेंगे जबकि वह व्यक्ति काँटों में घिर जाएगा।
Kabir Das Doha No. 22 –
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय ॥ 22 ॥
Maati Kahe Kumhar Se, Tu Kya Ronde Moy
Ek Din Aisa Aayega, Main Rondungi Toy.
अर्थ : कभी भी संसार में किसी को तुच्छ नहीं समझना चाहिए उन्होंने इसे एक उदाहरण देकर समझाया हैं कि “मिटटी कुम्हार से कहती है कि आज तो तू मुझे पैरों के नीचे रोंद रहा है‚ पर एक दिन ऐसा आएगा जब तू मेरे नीचे होगा और मैं तेरे ऊपर होउंगी.” अर्थात मृत्यु के बाद सब मिटटी के नीचे ही होते हैं।
Kabir Das Doha No. 23 –
आय हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बँधे जात जंजीर ॥ 23 ॥
Aay Hai So Jayenge, Raja Rank Fakir
Ek Sinhasan Chadhi Chale, Ek Bandhe Jaat Zanjeer
अर्थ : संसार में जिनते भी आये है एक दिन सबको जाना है. चाहे फिर वो राजा हो या कोई रंक भिखारी हो, केवल ईश भक्ति के पुण्य के अलावा किसी के साथ कुछ भी साथ नही जायेगा‚ एक सिंहासन पर बैठ कर जायेगा और दूसरा जंजीर में बंध कर जायेगा‚ धर्मात्मा सिंहासन पर बैठकर स्वर्ग और पापी जंजीर में बन्धकर नरक ले जाया जायेगा।
Kabir Das Doha No. 24 –
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब ।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब ॥ 24 ॥
Kaal Kare So Aaj Kar, Aaj Kare So Ab
Pal Me Parlay Hoagie, Bahuri Karega Kab
अर्थ : दोहे में समय के महत्व को बताया हैं कबीरदास जी कहते हैं कि कल का काम आज करना चाहिए और आज का अभी‚ पल में ये नश्वर जीवन ख़त्म हो जायेगा फिर तुम क्या कुछ कर पाओगे।
Kabir Das Doha No. 25 –
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख ।
माँगन से तो मरना भला, यह सतगुरु की सीख ॥ 25 ॥
Mangan Maran Saman Hai, Mati Mango Kai Bheekh
Mangan Se To Marna Bhala, Yah Satguru Ki Seekh
अर्थ : मांगने को संसार को सबसे तुच्छ काम माना हैं‚ कबीरदास जी कहते हैं कि मांगना मरने के समान होता हैं इसीलिए कभी भी भीख नहीं माँगो. सतगुरु की यह सीख हैं मांगने से तो मर जाना बेहतर होता हैं इंसान को सब कुछ स्वयं परिश्रम करके कमाना चाहिए।
Kabir Das Doha No. 26 –
जहाँ आपा तहाँ आपदां, जहाँ संशय तहाँ रोग ।
कह कबीर यह क्यों मिटे, चारों धीरज रोग ॥ 26 ॥
Jahan Aapa Tahan Aapada, Jahan Sanshay Tahan Rog
Kah Kabeer Yeh Kyon Mite, Charon Dheeraj Rog
अर्थ : जहाँ मनुष्य में घमंड आ जाता हैं उस पर विपदाएँ आने लग जाती हैं और जहाँ संशय होता हैं वहां चिंता हो जाती हैं इसीलिए सतगुरु कबीर कहते हैं‚ ये चारों रोग को कैसे मिटेंगे? इसे मिटाने का एक ही तरीका धैर्य हैं।
Kabir Das Doha No. 27 –
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय ।
भगता के पीछे लगे, सम्मुख भागे सोय ॥ 27 ॥
Maya Chhaya Ek Si, Birla Jaane Koy
Bhagta Ke Piche Lage, Sammukh Bhage Soy
अर्थ : माया (धन, दौलत व ऐश्वर्य) और परछाई दोनों एक समान होती है. यदि हम अपनी परछाई के पीछे-पीछे जाएँ तो वह हमसे दूर जाती है परंतु यदि हमने उससे मुख मोड़कर अपने रास्ते चलते चले तो वही परछाई हमारे पीछे-पीछे आती है ठीक ऐसा ही स्वभाव माया का भी है परन्तु यह सत्य कोई वीर ही समझ पाता है।
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Kabir Das Doha No. 28 –
आया था किस काम को, तु सोया चादर तान ।
सुरत सम्भाल ए गाफिल, अपना आप पहचान ॥ 28 ॥
Aaya Tha Kis Kaam Ko, Tu Soya Chadar Tan
Surat Sambhal Ye Gaafil, Apna Aap Pehchan
अर्थ : ए गाफिल, तू चादर तान कर सो रहा हैं‚ अपना होश ठीक कर और अपने को पहचान तू किस काम के लिए आया हैं? तू कौन हैं ? स्वयं को पहचान और सत्कर्मों में लग जा।
Kabir Das Doha No. 29 –
क्या भरोसा देह का, बिनस जात छिन मांह ।
साँस-सांस सुमिरन करो और यतन कुछ नांह ॥ 29 ॥
Kya Bharosa Deh Ka, Binas Jat Chin Maanh
Saans Saans Sumiran Karo Aur Yatan Kuch Naah.
अर्थ : इस शरीर का क्या विश्वास हैं ये तो पल-पल में मिटा ही जा रहा है इसलिए अपनी हर सांस में हरि का नाम सुमिरन करो इसके अलावा मुक्ति पाने का कोई उपाय नहीं हैं।
Kabir Das Doha No. 30 –
गारी ही सों ऊपजे, कलह कष्ट और मींच ।
हारि चले सो साधु है, लागि चले सो नींच ॥ 30 ॥
Gaari Hi Son Upaje, Kalah Kasht Aur Mich
Hari Chale So Sadhu Hai, Lagi Chale So Nich
अर्थ : आम जन को झगड़े पर समझाते हुए कहा हैं कि गाली गलौच से झगडा (कलह, कष्ट) परेशानी और तनाव बढ़ता हैं (मीच का अर्थ होता हैं तनाव और दबाव. जैसे आँख मीचना यानि आँख को दबावपूर्वक बंद करना) आपसी गाली गलौज से कुछ भी फायदा नहीं होने वाला. कबीर आगे कहते हैं कि जो गाली के प्रतिउत्तर में गाली देता है उसे निम्न प्रकृति का व्यक्ति माना जा सकता है परन्तु सज्जन व्यक्ति गाली के साथ चिपकते नहीं है, वह गाली और गाली देने वाले को महत्व बिल्कुल भी नहीं देते हैं. इसीलिए कबीर कहते हैं कि “”हारि चले सो साधू है” जो गाली को छोड़ देते हैं, गाली की तरफ ध्यान नहीं देते हैं, उसे नजरंदाज़ कर देते है, वास्तव में ऐसे व्यक्ति ही साधू कहलाने के योग्य हैं।
Kabir Das Doha No. 31 –
दुर्बल को न सताइये, जाकि मोटी हाय ।
बिना जीव की हाय से, लोहा भस्म हो जाय ॥ 31 ॥
Durbal Ko Na Sataeye, Jaki Moti Haay
Bina Jiva Ki Haay Se, Loha Bhasma Ho Jaay
अर्थ : कभी भी वीर और शक्तिशाली योद्धा को मद में चूर होकर निर्बल पर अत्याचार नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसे व्यक्ति की हाय बहुत बुरी होती हैं‚ जिस प्रकार लौहार की धोकनी मृत जानकर की खाल से बनी होती हैं उसमे जान नहीं होती लेकिन तब भी वह लोहे को जलाकर भस्म कर देती हैं‚ ठीक उसी प्रकार दुःखी व्यक्ति की बददुआ से समस्त कुल का नाश हो जाता हैं।
Kabir Das Doha No. 32 –
हीरा वहाँ न खोलिये, जहाँ कुंजड़ों की हाट ।
बांधो चुप की पोटरी, लागहु अपनी बाट ॥ 32 ॥
Hira Vahan Na Koliye, Jahan Kunjado Ki Haat
Bandho Chup Ki Potari, Lagahu Apni Baat
अर्थ : हीरा का दिखावा कभी भी वहां नहीं करना चाहिए जहाँ कुंजड़ों यानी दुष्ट और चोरों का वाश हो, ऐसी जगह तो हीरे की पोटली और अपनी वाणी को और भी कसकर बन्ध लेना चाहिए. यहाँ कबीर का हीरे से अर्थ ज्ञान से हैं और कुंजड़ों का मतलब सांसरिक जीवन में फंसा हुआ व्यक्ति हैं‚ कबीर के अनुसार ज्ञान और भक्ति की चर्चा वहां न करें जहां केवल सांसरिक विषयों की चर्चा हो रही हो‚ इसके अलावा उन लोगों को अपनी भक्ति के बारे में न बतायें जो केवल निंदात्मक वचन बोलते हैं।
Kabir Das Doha No. 33 –
दस द्वारे का पिंजरा, तामे पंछी का कौन ।
रहे को अचरज है, गए अचम्भा कौन ॥ 33 ॥
Das Dware Ka Pinjara, Tame Panchi Ka Koun
Rahe Ko Acharaj Hai, Gay Achambha Koun
अर्थ : हमारा शरीर जिसके दस द्वार हैं, वो एक पिंजरे के समान है और आत्मा इस पिंजरे का पक्षी है. पंछी मौन है, ज्यादा कुछ नहीं कहता और यदि कुछ कहता भी है तो पिंजरे का मालिक जो है, वह अनसुनी कर देता है. अब इस पिंजरे का मालिक कौन हुआ? मालिक है ‘मन’‚ यह आश्चर्य की बात नहीं है कि एक दिन पक्षी उड़ जायेगा, आश्चर्य इस बात का है कि पक्षी दस द्वार होने पर भी उसमे रहा”।
Kabir Das Doha No. 34 –
राम रहे बन भीतरे गुरु की पूजा ना आस ।
रहे कबीर पाखण्ड सब, झूठे सदा निराश ॥ 34 ॥
Raam Rahe Ban Bhitare Guru Ki Puja Na Aas
Rahe Kabir Pakhand Sab, Jhute Sada Niraash
अर्थ : राम-राम मन से जपते है लेकिन गुरू के उपदेशों को नही मानते, गुरू सेवा की इच्छा नही करते, वे सब पाखंडी है, झुठे है, निराश रहते है उनकी झुठी भक्ति का कोई फल प्राप्त नही होता।
Kabir Das Doha No. 35 –
दान दिए धन ना घते, नदी ने घटे नीर ।
अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर ॥ 35 ॥
Daan Diye Dhan Naa Ghate, Nadi Ne Ghate Neer
Apni Aankhon Dekh Lo, Yon Kya Kahe Kabir
अर्थ : दान का महिमा मंडन किया हैं. कबीरदास जी उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार बहती हुई नदी में कितना भी पानी निकाले उसमे पानी कम नहीं होता उसी प्रकार दान करने वाले व्यक्ति के पास कभी धन की कमी नहीं रहती हैं. दूसरी पंक्ति में कबीर ने कहा हैं कि ‘अपनी आँखों देख लो, यों क्या कहे कबीर’ यानी इस सत्य को तुम अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देख सकते हो यह कबीर कहता हैं।
Kabir Das Doha No. 36 –
कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार ।
साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥ 36 ॥
Kutil Vachan Sabse Bura, Jari Kar Tan Haar
Sadhu Vachan Jal Roop, Barse Amrut Dhar
अर्थ : कठोर शब्द शरीर को जलाकर रखकर देते हैं. इसीलिए कभी भी किसी को बुरा नहीं बोलना चाहिए‚ कबीर कहते हैं वाणी साधू की तरह निर्मल होनी चाहिए इससे हमेशा अमृत धार बहती रही हैं।
Kabir Das Doha No. 37 –
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय ।
यह आपा तो ड़ाल दे, दया करे सब कोय ॥ 37 ॥
Jag Me Bairi Kai Nahi, Jo Man Sheetal Hoy
Yah Aapa To Daal De, Daya Kare Sab Koy
अर्थ : मनुष्य के मन में शीतलता हैं उसका संसार में कोई भी बैरी नहीं हैं. वह सभी को समान भाव से देखता हैं‚ यदि मनुष्य अपना अहंकार को छोड़ दे तो हर कोई दया करने को तैयार हो जाता हैं।
Kabir Das Doha No. 38 –
बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥ 38॥
Baazigar Ka Bandara, Aisa Jiv Man Ke Sath
Nana Nach Dikhay Kar, Rakhe Apne Sath
अर्थ : जिस तरह बाजीगर और बन्दर का साथ होता हैं बाजीगर के इशारे पर बन्दर तरह-तरह के खेल दिखाता हैं ठीक उसी प्रकार जीव और मन के बीच में साथ होता हैं. मन की भावनाये जीव से तरह-तरह के खेल दिखवाती रहती हैं. जिस समय मन भी भावनाये निर्मल हो जाएगी उस दिन यह दुनियादारी भी समाप्त हो जाएगी. यह अपने आपसे निर्मल नही होती, इसे तो काबू मे करना पड़ता है और यह गुरु के बिना यह काबू मे नही आ सकती है।
Kabir Das Doha No. 39 –
सोवा साधु जगाइए, करे नाम का जाप ।
यह तीनों सोते भले, साकित सिंह और साँप ॥ 39 ॥
Sova Sadhu Jgaie, Kare Naam Ka Jap
Yeh Teenon Sote Bhale, Sakit Sinh Aur Sanp
अर्थ :साधू सोता हैं तो उसे जगाईये क्योंकि उनके जागने से ज्ञान की वर्षा होती हैं लेकिन अधर्मी, शेर और सांप सोते ही भले हैं जो लोगों को कष्ट पहुँचाते हैं।
Kabir Das Doha No. 40 –
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥ 40 ॥
Avagun Kahun Sharab Ka, Aapa Ahamak Sath
Manush Se Pashuaa Kare Day, Ganth Se Khat
अर्थ : शराब की लत से मनुष्य को केवल नुकसान ही नुकसान होता हैं, शराब के नशे में इंसान पशु के भांति व्यवहार करने लगता हैं‚ शराब से उसका शरीर तो बर्बाद होता ही हैं घर की आर्थिक स्थिति भी ख़राब हो जाती हैं‚ कुछ ऐसे भी लोग जो शराब को छोडऩा तो चाहते हैं‚ लेकिन छूट नहीं पाती।
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Kabir Das Doha No. 41 –
मैं रोऊँ जब जगत को, मोको रोवे न होय ।
मोको रोबे सोचना, जो शब्द बोय की होय ॥ 41 ॥
Main Roun Jab Jagat Ko, Moko Rove N Koy.
Moko Rove Sochna, Jo Sabd Boy Ki Hoy.
अर्थ : मैं तो जग में सबके लिए रोता हूँ लेकिन मेरा दर्द कोई देख नहीं पता‚ मेरा दर्द वही समझ सकता हैं जो मेरे शब्द समझता हैं।
Kabir Das Doha No. 42 –
अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥ 42 ॥
Ataki Bhal Sharir Me Teer Raha Hain Tut
Chunbak Bina Nikale Nahi Koti Patan Ke Phot
अर्थ : योद्धा के शरीर में भाल की टूटी नोंक चुंबक के बिना निकालना असंभव हैं‚ ठीक उसी प्रकार मन की बुराई हैं वह सतगुरु रूपी चुंबक के बिना नहीं निकलने वाली हैं।
Kabir Das Doha No. 43 –
तीरथ गये ते एक फल, सन्त मिले फल चार ।
सतगुरु मिले अनेक फल, कहें कबीर विचार ॥ 43 ॥
Tirath Gaye Te Ek Fal, Sant Mile Fal Chaar
Satguru Mile Aneka Fal, Kahe Kabir Vichar
अर्थ : तीर्थ यात्रा पर जाने से एक फल की प्राप्ति होती हैं, संत महात्माओ के सत्संग से चार फलोँ की प्राप्ति होती है और अगर सद्गुरु ही मिल जाएं तो समस्त पदार्थोँ की प्राप्ति हो जाती है फिर किसी वस्तु की इच्छा मन मे नही रहती।
Kabir Das Doha No. 44 –
पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥ 44 ॥
Pativrata Maili, Kali Kuchal Kurup
Pativrata Ke Rup Me, Vaaro Koti Sarup
अर्थ : पवित्रता मैली ही भली हैं फिर चाहे वह काली हो, फटी साडी पहने हुए हो या कुरूप हो‚ इस पवित्रता के रूप पर करोड़ों सुन्दरियों को न्यौछावर कर देता हूँ।
Kabir Das Doha No. 45 –
बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥ 45 ॥
Baidh Mua Rogi Mua, Mua Sakal Sansaar
Ek Kabira Na Mua, Jehi Ke Ram Aadhar
अर्थ : यह संसार एक नश्वर दुनिया हैं फिर चाहे चिकित्सक हो या कोई सभी को एक दिन मरना हैं‚ लेकिन जिसने भी राम रूपी सहारा ले लिए वह अमर हो जाता हैं।
Kabir Das Doha No. 46 –
हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥ 46 ॥
Har Chaale To Manav, Behad Chale So Sadh
Had Behad Dono Taje, Taako Bhata Agaadh
अर्थ : धीरे-धीरे (थोड़ा थोड़ा जप करते है) हद में चले वो मानव है, जो बेहद तेज चले वो साधु है और जो चलते ही नही सोये रहते है उनके साथ क्या अगाध हुआ, पता नही?
Kabir Das Doha No. 47 –
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय ॥ 47 ॥
Aisi Vani Boliye, Man Ka Aapa Khoy
Auran Ko Sheetal Kare, Aaphu Sheetal Hoye
अर्थ : मनुष्य की वाणी को संसार में सबसे महत्वपूर्ण बताया है। कबीर दास जी कहते हैं कि हमें ऐसी वाणी बोलनी चाहिए जिससे दूसरों को भी शीतलता का अनुभव हो और इससे आपको भी प्रसन्नता हो‚ मधुर वाणी औषधि के सामान होती है, जबकि कटु शब्द तीर के समान कान से प्रवेश कर सम्पूर्ण शरीर को पीड़ा देता है।
Kabir Das Doha No. 48 –
जाके जिव्या बन्धन नहीं, ह्र्दय में नहीं साँच ।
वाके संग न लागिये, खाले वटिया काँच ॥ 48 ॥
Jaake Jivya Bandhan Nahi, Hraday Me Nahi Sanch
Vaake Sangh Na Magiye, Khale Vatiya Kanch
अर्थ : व्यक्ति का अपनी जीभ पर नियंत्रण नहीं है और जिसके ह्रदय में सच्चाई नहीं हैं उस इंसान के साथ चलने से आपको कभी भी लाभ प्राप्त नहीं होगा‚ इसलिए ऐसे व्यक्तियों के साथ संयम से और खुद को बचाते हुए व्यवहार करना चाहिए‚ अगर यह संभव नहीं तो उनसे दूर रहो।
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Kabir Das Doha No. 49 –
सुमरण से मन लाइए, जैसे पानी बिन मीन ।
प्राण तजे बिन बिछड़े, सन्त कबीर कह दीन ॥ 49॥
Sumaran Se Man Laeye, Jaise Pani Bin Meen
Pran Taje Bin Bichhade, Sant Kabir Kah Din
अर्थ : सुमिरन इस तरह करो जैसे मछली पानी का करती हैं‚ वह कभी भी पानी को भूलती नहीं. जैसे ही पानी से उसका साथ छूटता हैं वह अपने प्राण त्याग देती हैं‚ वही प्रकार सुमिरण (ईश्वर का स्मरण) का भी स्वरुप हैं‚ जिसके मन में ईश्वर का नाम रम जाता हैं, उसके सभी काम पूर्ण और तृप्त हो जाते हैं।
Kabir Das Doha No. 50 –
कबीरा जपना काठ की, क्या दिखलावे मोय ।
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥ 50 ॥
Kabira Japana Kaath Ki, Kya Dikhlawe Moy
Hridya Naam Na Japega, Yah Japani Kya Hoy
अर्थ : लकड़ी की बनी माला को जपकर क्या फायदा होने वाला हैं? जब तक की आपका मन ईश्वर का नाम नहीं लेगा तब तक इस जाप से कुछ लाभ नहीं होगा‚ इसीलिए माला फेरने के बजाय मन की माला जपना‚ मन में अंदर से परिवर्तन करना महत्वपूर्ण है।